सरज़मीं-ए-हिंद पर अक्वाम-ए-आलम के फिराक काफिले बसते गए, हिंदुस्तान बनता गया
जगदलपुर, 18 जनवरी. भारत न सिर्फ विभिन्न तहज़ीबों का गहवारा बल्कि एक बहुभाषी देश है। यह दुनिया का ऐसा मुल्क है जहाँ सबसे ज्यादा धर्मों और तहजीबों को मानने वाले लोग रहते हैं। हजारों साल पुराने इस देश में जितनी भी कौमें यहाँ आईं और बस गई, उन्होंने इस देश में अपनी तहजीब के रौशन नक्श छोड़े हैं। मुमताज़ मुहकिक डॉक्टर महताब आलम ने अपनी किताब वस्ते हिंद में उर्दू अदब और मुमताज तारीखदान सैनी कुमार चटर्जी के मुताबिक भारत में जो कौमें बाहर से आई हैं, उनमें ओल्ड नेग्रिटो, ऑस्टरिक, द्रविड़, आर्य, अरब, डच, पुर्तगाल, फ्रेंच, मुस्लिम और अंग्रेजों का जिक्र किया गया है। तहजीबों के टकराव में एक कौम ने दूसरी कौम के कहीं असरात कबूल किए तो कहीं अपने नकश कायम करने की कोशिश में दूसरे के नकश मिटा दिए। शहरों और गाँवों के नाम मिटाकर नए नामों से पहचान कायम करने का सिलसिला सदियों पहले शुरू हुआ था, जो आज भी किसी न किसी सूरत में जारी है। अब यह सिलसिला तअस्सुबाना रुख इखतियार कर चुका है और एक खास जात और कौम को नीचा दिखाने की गरज से किया जा रहा है, जो संविधान के खिलाफ है। आजादी के बाद देश की सियासी पार्टियों ने अपने सियासी फायदे और वोटों की सियासत के लिए दूसरी कौमों के नक्श मिटाकर एक खास रंग में रंगने का काम किया है। अब इस रुजहान में और शिद्दत आती जा रही है। कांग्रेस, जो शहरों और गाँवों के नाम बदलने पर खामोश रहती थी, अब वह खुलकर सरकार को अपने नजरिए में बदलाव लाने का मशविरा देने लगी है। संविधान लागू हुए पचहत्तर साल बाद भी देश में बहुत से ऐसे जगहों, गाँवों और स्टेशनों के नाम मौजूद हैं, जो एक खास जात या नस्ली तफरीक का मामला सामने लाते हैं।
कांग्रेस ने मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव को खत लिखकर ऐसे नामों को बदलने की माँग की है जो मुस्लिम नाम वाले नहीं हैं बल्कि उनसे किसी खास जात का पता चलता है या नस्लीय तफरीक की निशानदेही होती है। सरकार उर्दू और मुस्लिम नाम वाले मकामात, ऐसे नाम जो इस्लाम, मुस्लिम या गंगा-जमुनी तहज़ीब, भारतीय संस्कृति और परंपरा को जाहिर करते हैं, जो हिंदू-मुस्लिम एकता और इत्तेफाक की अलामत और पहचान हैं, उन नामों को बदलने की फिक्र में रहती है। ऐसे तमाम नाम जो किसी मुस्लिम हुक्मरान के नाम पर हैं या किसी खास मजहब की निशानदेही करते हैं, हमलावर बताकर नाम बदलने की फिक्र में रहती है। जबकि भारत में मूल निवासी और द्रविड़ को छोड़कर सब बाहरी है। सवाल यह है कि यह सरकार जात-पात और नस्लीय तफरीक पर मबनी गाँव, बाजरा, मोहल्ला, टोला के नाम पर एतराज़ क्यों नहीं करती? मध्य प्रदेश के ही कई इलाकों में लोहारपुरा, ढमरूवाला, डोमनपुरा, चमटोली, चमरोला और इस तरह से दूसरे सूबों में भी ऐसे नाम हैं जो न सिर्फ संविधान के लिहाज से गलत हैं बल्कि समाजी तौर पर भी काबिले-एतराज़ हैं। भारत के कई सूबों और शहरों में इस तरह के नाम कसरत से पाए जाते हैं। ऐसे नाम हर जिला और शहर में मिल जाएँगे जो जात और नस्लीय इम्तियाज की निशानदेही करते हैं। इन्हें बदलकर देश के मुमताज मुजाहिदीन-ए-आजादी, सूफी, संतों और साइंसदानों के नाम पर रखा जा सकता है। आजादी के बाद देश की सियासी जमातों ने बहुत से शहरों और जगहों के नाम तब्दील किए है. जिसका सियासी जमातों ने सियासी फायदा भी उठाया है। लेकिन जात और नस्ल पर मबनी गाँवों और जगहों के नाम को बदलने की तरफ किसी भी सियासी जमात ने तवज्जो नहीं दी। और आज जो नाम बदलने का सिलसिला चला है, वह एक कौम को चोट पहुँचाने की गरज से किया जा रहा है। यह सब तअस्सुबाना रुख एक खास जात और मजहब को नीचा दिखाने के लिए अपनाया जा रहा है, जो मुल्क के मुस्तकबिल के लिए सही नहीं है। गुजिश्ता हफ्ते मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव के जरिए उज्जैन के तीन गाँवों के नाम बदलने का ऐलान किया गया और इसके बाद शाजापुर के 11 गाँवों के नामों को एक साथ बदल दिया गया। मुख्यमंत्री ने नाम तब्दील करने के लिए अजीबो-गरीब तर्क दिया है। तकरीब से खिताब करते हुए कहा, ‘मौलाना नाम खटकता है और नाम लिखूँ तो पेन अटकता है।’ यानी मुख्यमंत्री इस लकब की तौहीन करने के साथ-साथ तहरीक-ए-जंग-ए-आज़ादी में शामिल तमाम मुजाहिदीन-ए-आज़ादी (मौलाना) जिनकी तादाद हज़ार-दो हज़ार में नहीं बल्कि हजारों-लाखों में है, उनकी भी तौहीन कर रहे हैं। जिन्होंने अपनी जानों का नजराना पेश करके, ज़र्रा-जर्रा को अपने लहू से सींचकर प्यार और मोहब्बत भरा भारत दिया। लेकिन मुख्यमंत्री इस तरह का बयान देकर अपनी जेहनियत का इजहार करना चाहते हैं। इस तरह का बयान संविधान की धज्जियाँ उड़ा रहा है। ऐसा तबसिरा मुख्यमंत्री के ओहदे के वकार के मुताबिक नहीं है।