जब तक सभी पसमांदा तबकों में इत्तेफाक व इत्तेहाद नहीं होना, पसमांदा तहरीक को सफलता मिलना नामुमकिन है: एम. डब्ल्यू, अंसारी (आई.पी. एस) रिटायर्ड डी. जी

पिछड़े में तो बस एक ही दो लीडर होते है
 पिछडे में तो बस ब्रेकर ही ब्रेकर होते हैं

जगदलपुर, 11 अप्रैल. बरसों से सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक वंचनाओं का शिकार पिछड़ा तबका देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इन वंचनाओं की एक बड़ी वजह इन लबकों की अंदरूनी बंटवारा (खींचतान) है। बिरादरी, जाल, मस्त्रक, इलाका इन तमाम बुनियादों पर हम सब पिछडे इस कदर बंटे हुए हैं कि हमारा सामूहिक दुय्ब भी विश्वरा हुआ महसूस होता है। यही वह बिखराब है जो हमारी आंदोलनों की कमजोरी बन चुका ह।  अगर हम इतिहास का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट होता है कि जब भी किसी क़ौम, तबके या आंदोलन ने सफलता प्राप्त की, उसके पीछे सबसे बड़ी वजह उच्च शिक्षा, राजनीतिक चेतना और एकता ही थी। एकता वह ताक़त है जो कमजोरी को मजबूत, ख़ामोशी को गूया, और पिछड़ों को आगे बढ़ने का हौसला देती है। लेकिन अफ़सोस कि पिछड़ा तबका, बावजूद लादाद और सलाहियत के, इन तीन नेमतों से महरूम है।  यह एक तल्ख हकीकत है कि पिछड़ा तबका तादाद में तो अक्सरियल रखता है, लेकिन सत्ता, नीति निर्माण और संसाधनों के बंटवारे में कहीं नजर नहीं आता। यह तबका न सिर्फ दूसरों के जुल्म व शोषण का शिकार रहा है, बल्कि अंदरूनी टकराव और नेतृत्व की कमी ने भी इसके जख्मों को गहरा किया है। हर बिरादरी अपनी लड़ाई अलग लड़ रही है, हर तंजीम अपना रास्ता अलग चूल रही है। इससे ताकत बंट जाती है, और ताक़त की बँटवारा ही वंचना का कारण बनती है।  पिछडे नेतृत्व की कमी एक सामाजिक व राजनीतिक बला को जन्म देती है जो किसी भी क़ौम की तरक्की में स्कावट बन सकती है। जब दबे-कुचले या कमजोर तबकों की सही नुमाइंदगी करने वाला नेतृत्व मौजूद न हो, तो उनके मसले नजरअंदाज होते हैं और उनकी आवाजे दब जाती हैं। इस नेतृत्व की गैर-मौजूदगी का मतलब यह है कि वह तबका जो पहले ही आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक लिहाज से पीछे है, और ज्यादा बंचना का शिकार हो जाता है। एक मजबूत और मुखलिस नेतृत्व न सिर्फ इन तबकों के मसलों को ऊँचे स्तर पर उजागर करता है बल्कि उनके हक के तहफ्फुज के लिए अमली कदम भी उठाता है। लिहाजा, पिछडे तबके की भलाई के लिए जरूरी है कि उनकी नुमाइंदगी करने वाला नेतृत्व मौजूद हो, जो उनके मसलों को सही अंदाज में समझकर असरदार तरीके से हल कर सके।
इससे पहले भी मुख्तत्रिफ मौकों पर पिछड़े तबकों के लिए कोमन एजेंडे की बात कही जाती रही है। इस कोमन एजेंडे में पिछड़े तबकों के मसलों और माँगों को एक साझा बयानिया देने की कोशिश की गई। यह एजेंडा सिर्फ शिकायतों की फेहरिस्त नहीं बल्कि एक मुकम्मल बाका है जिसमें तालीम, रोजगार, जनगणना में पहचान, राजनीतिक नुमाइंदगी, सामाजिक इंसाफ, मीडिया में नुमाइंदगी, और मजहबी बराबरी जैसे अहम नुक्ते शामिल हैं। यह एजेंडा हमें बताता है कि अगर हम अपनी माँगों को एक जबान में, एक रुम्ब में, और एक आवाज़ में उठाएँ, तो कोई ताक़त हमें नजरअंदाज नहीं कर सकती। लेकिन शर्त यही है कि हम मुत्तहिद हो, जात या बिरादरी की तफ़रीक़ से बुलंद हो कर सामूहिक भलाई को लजर्जीह दें।
अगर मुत्तहिद होकर कोई कोमन एजेंडा नहीं बनाया तो पिछड़ा तबका हमेशा पिछड़ेपन का शिकार ही रहेगा। जिस तरह १९५० का राष्ट्रपति आदेश (Presidential Order) भारत के संविधान के तहत जारी किया गया एक अहम हुक्मनामा था, जिसका मकसद पिछडे तबकों, खास तौर पर अनुसूचित जातियों (Scheduled Castes) और अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) को सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक तरक्की के मौके देना था। इस हुक्म के तहत सिर्फ हिंदू मजहब से ताल्लुक रखने वाले अफ़राद को अनुसूचित जातियों की सहूलियतों का हक़दार क़रार दिया गया था, जिन्हें बाद में सिथ्य (1956) और बौद्ध (1990) मजाहिब में भी तौसीअ दी गई, लेकिन मुसलमान और ईसाई पिछड़े तबकों को इससे बाहर रखा गया। इस फ़ैसले ने मजहब की बुनियाद पर इम्तियाज को जन्म दिया। यह हुक्मनामा भारत में पिछड़े तबकों के हुकूक और बराबरी के सिलसिले में एक तवील बहस और जद्दोजहद की बुनियाद बना, जिसका असर आज तक नज़र आता है और आज तक यह आइली तफरीक (Constitutional Discrimination) पिछड़े मुसलमानों के साथ जारी है। यह संविधान की खिलाफ़वर्जी है और भारत के संविधान पर हमला है।
महात्मा गांधी की जान बचाने वाले पिछड़े रहनुमा बतख मियाँ अंसारी इस इम्तियाज की वाजेह मिसाल हैं जिन्हें उस वक़्त के राष्ट्रपति के किए गए बादे से आज तक महरूम रखा गया। वादे में ५३ बीघा जिस ज़मीन का उनसे वादा किया गया था उसे आज तक की सरकारें पूरा नहीं कर सकीं और उनके खानदान वाले मजदूरी करने को मजबूर हैं। आज तक इंसाफ की गुहार लगा रहे हैं और आज तक इंसाफ नहीं मिला, नजीर तमाम नाम निहाद पिछ‌ड़े लीडर अपनी तिजोरियों भरते रहे और महज अपनी पार्टी के गुलाम बने रहे।
सिर्फ जगह जगह तंजीमै कायम करके बड़े-बड़े जलसे करके यह कह‌ते रहना कि हमें मुत्तहिद होना चाहिए काफी नहीं। इत्तिहाद एक मुसलसल अमल है, एक तर्ज-ए-फ़िक्र है। इसके लिए कुर्बानी देनी पड़ती है, इख्तिलाफात को बर्दाश्त करना पड़ता है, और एक बड़ी कामयाबी को जेहन में रखना होता है तब कहीं जाकर एक लंबी जद्दोजहद के बाद कामयाबी मिलती है।
अगर कोई एक बिरादरी या तंजीम आगे बढ़ती है, तो दूसरों को उसे सहारा देना होगा न कि तन्कीद का निशाना बनाना। क्रियादत को जाती मफादात के बजाय इज्तिमाई फलाह को तर्जीह देनी होगी। नई नस्त्र को जज्बात से ज्यादा शऊर के साथ काम लेना होगा, और सोशल मीडिया को सिर्फ एह‌तिजाज का जरिया नहीं बल्कि तालीम व तरबियत का हथियार बनाना होगा। भारत सबका है भारत किसी एक का नहीं, सबने अपना लहू देकर इसे सींचा है। हमें भारत के संविधान के दायरे में रहते हुए अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद करनी है।
वक़्त बहुत तेज़ी से गुज़र रहा है, और जो कौमें या तबक़ात वक़्त की आवाज़ को नहीं पहचानते, तारीख उन्हें पीछे छोड़ देती है। अगर पिछड़ा तबका अब भी नहीं जागा, अगर उसने अब भी अपनी तफ़रीक को ख़त्म न किया, तो आने वाली नस्लें भी उन्हीं ज़ख़्मों के साथ जियेंगी। इसलिए कि कामयाबी सिर्फ उनका मुकद्दर बनती है जो मुत्तहिद होते हैं। और जब तक पिछड़ी तहरीक में इत्तिहाद नहीं होगा, कामयाबी का ख़्वाब महज़ एक ख्वाब ही रहेगा।
अब वक़्त आ गया है तमाम पिछड़ी तंजीमें आपस की नाइत्तिफ़ाक़ियाँ मिटा कर इत्तेफ़ाक़ व इत्तिहाद पैदा करें। अपना एक मुश्तरका एजेंडा बनाएं। अपने अंदर मनुवादी और पूंजीवादी अनासिर से लड़ने की ताकत पैदा करें। अपनी कियादत खड़ी करें और सबसे अहम पूरे समाज का बच्चा-बच्चा आला तालीमयाफ्ता बन जाए इसकी फ़िक्र, कोशिश और जद्दोजहद करें तभी कामयाबी पिछड़े तबकों का मुकद्दर बनेगी।
करीम

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