
दंडकारण्य का यह वही इलाका है, जहाँ हिडमा को कभी स्थानीय लोगों का सहारा, जंगलों का कवच और माओवादी नेतृत्व का वरदहस्त प्राप्त था। लेकिन लगातार दबाव, तेज़ी से सिमटते ठिकाने और सुरक्षा बलों के केंद्रित अभियानों ने उसके लिए भागने की जगह भी कम कर दी थी। पुलिस के मुताबिक, हिडमा और उसकी पत्नी मडकम राजे, दोनों पिछले कुछ महीनों से कारे गुट्टा और सीमा के कठिन पहाड़ी इलाक़ों में छिपते–भागते देखे गए थे। दण्डक्रय का यह ‘साया’, जो कभी पूरे बस्तर को अपनी हिंसक छाप के नीचे ढके रहता था, अब सिकुड़कर सिर्फ़ कुछ ठिकानों तक रह गया था।उसी दौर में—मारेडुमिल्लो मंडल में कॉम्बिंग के दौरान सुरक्षा बलों की टुकड़ी पर अचानक माओवादियों ने फ़ायरिंग की और जवाबी कार्रवाई में छह उग्रवादी मारे गए। पहचान होने पर पता चला कि उनमें सिर्फ़ सामान्य कैडर नहीं, बल्कि माओवादी संरचना के सबसे शक्तिशाली चेहरे शामिल थे—सबसे ऊपर नाम था माडवी हिडमा का। उसके साथ राजे, DKSZC सदस्य, भी ढेर हुई। ध्यान देने योग्य बात यह है कि हिडमा और राजे दोनों माओवादी आंदोलन में शुरुआती उम्र में बाल-संघम से जुड़े थे और सालों में संगठन की ऊँची जिम्मेदारियों तक पहुंचे। राजे की भूमिका तो और भी व्यापक रही—ACM, LOS कमांडर, पॉलिटिकल स्कूल की प्रशिक्षक, MOPOS इंचार्ज और अंततः बटालियन पार्टी कमेटी की सदस्य।
मुठभेड़ में लक्मल (DCM), कमलू (PPCM), मल्ला (PPCM) और देवे, जो हिडमा की पर्सनल सुरक्षा में तैनात रहता था, भी मारे गए। मुठभेड़ के बाद बरामद हथियारों का जखीरा साफ़ संकेत देता है कि यह समूह सीमा क्षेत्र में बड़ा प्रतिशोधात्मक हमला करने की तैयारी में था। दो AK–47 राइफलें, पिस्टल, रिवॉल्वर, एक देसी हथियार और भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री की बरामदगी से यह स्पष्ट हो गया कि वे किसी बड़े लक्ष्य पर हमला करने के इरादे से घूम रहे थे।
बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक सुंदरराज पैट्लिंगम ने बताया कि पिछले कई महीनों से बस्तर, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में संयुक्त अभियान तेज़ किए गए थे। लगातार बढ़ते दबाव ने हिडमा को अपने सुरक्षित ठिकानों से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया था। IG के शब्दों में —
“दण्डकारण्य में वर्षों से जिसके नाम से आतंक फैलता था, उसका अंत माओवादी विरोध अभियान की सबसे निर्णायक सफलता है। यह उन कैडरों के लिए भी चेतावनी है जो अभी भी हिंसा का रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अब मुख्यधारा में लौटना ही उनका एकमात्र भविष्य है।”
छत्तीसगढ़, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के लिए हिडमा की मौत सिर्फ़ एक ऑपरेशन की उपलब्धि नहीं, बल्कि माओवादी ढांचे के भीतर गहरे असर वाला झटका है। हिडमा वह नाम था, जिसने बस्तर की शांति को बार–बार अपने हमलों से छलनी किया—जगारगुंडा से किस्तारम तक, बटालियन नंबर–01 के नेतृत्व से सेंट्रल कमेटी की दहलीज़ तक। वह स्थानीय आदिवासियों को भ्रमित करके उन्हें हिंसा की राह पर धकेलता रहा, जबकि शासन द्वारा आत्मसमर्पण और पुनर्वसन के अवसर कई बार उसके सामने रखे गए।
लेकिन हिडमा की जिद, उसका अहंकार और हिंसा की जड़ों में जाना ही उसके अंत का कारण बना। दण्डक्रय का जो साया कभी पूरे बस्तर पर छाया हुआ था, वह अब इतिहास के पन्नों में सिमट गया है।
आज स्थानीय समुदाय में एक नई राहत महसूस की जा रही है—यह भरोसा कि वह छाया हट चुकी है, और अब इस धरती पर शांति की रोशनी और भी साफ़ दिखाई दे रही है।