बस्तर का जीवंत इतिहास :जगदीश जारी की जुबानी

जगदलपुर/
जगदलपुर के मोतीलाल नेहरू वार्ड  निवासी 99 वर्षीय जगदीश जारी चुपचाप बैठे हैं, उनकी निगाहें उनके परिवार द्वारा देखे गए एक सदी के बदलाव की कहानी बता रही है। निचोड़ पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में, वे आज़ादी के तुरंत बाद बस्तर में बिताए जीवन को याद करते हैं, एक ऐसी दुनिया का वर्णन करते हैं -जो खोई और बदली हुई है।

“मेरा परिवार लगभग सौ सालों से जगदलपुर को अपना घर कहता है,” जगदीश ने स्थिर स्वर में कहा। “उस समय, हम चारों ओर से जंगल से घिरे थे। प्रकृति हर जगह थी।”

जारी के पिता ब्रिटिश शासन के दौरान प्रतिनियुक्ति पर बस्तर आए थे। उन दिनों व्यवस्था और अनुशासन का बोलबाला था। वे कहते हैं, “प्रशासन सख्त था। अगर किसी को अव्यवस्था दिखाई देती, तो पूरे विभाग को ज़िम्मेदार ठहराया जाता था।” “दीवान खुद घोड़े पर सवार होकर सफाई का निरीक्षण करते थे। अगर कहीं कचरा होता, तो वे ज़िम्मेदार लोगों को बुलाते थे।”

अपराध लगभग नामुमकिन था, वे याद करते है कि सिनेमा देखने वे रायपुर गए और सड़क पर अपनी सायकिल खड़ी कर गए थे। तीन दिनों के बाद लौटने पर उनकी साइकिल सड़क किनारे सुरक्षित खड़ी मिली।

जारी उन दिनों को याद करते हुए मुस्कुराते हैं। “कोई डर नहीं था। मेरे मामा, चिरौंजी लाल मोहेंद्र, नगर निरीक्षक थे। आज़ादी के बाद कई सालों तक सब कुछ व्यवस्थित रहा, लेकिन 1960 तक हालात बदलने लगे।”

वह नरोना को याद करते हैं, जो एक प्रशासक और शिकारी थे। “जब शेरों ने तोकापाल में आतंक मचाया, तो नरोना ने अपनी गाड़ी में बैल की घंटी बाँधी और खुद शेरों का शिकार किया। वह हर हफ़्ते एक या दो शेर मारते थे।” ब्रिटिश कंपनियों ने केशकाल में सर्च लाइटें लगाईं और 1948 तक जगदलपुर में सिनेमा हॉल खुल गए।

“लोग कोंटा पैदल या साइकिल से जाते थे। पहली बस, अश्वनी की थी। लोगों के आमतौर पर वेतन 60 से 80 रुपये था। पेट्रोल चार रुपये प्रति गैलन था, और एक कुली पचास पैसे लेता था,” जारी याद करते हैं। “जंगली जानवर खुलेआम घूमते थे, यहाँ तक कि कलेक्ट्रेट में भी घुस जाते थे।”

ज़िला अस्पताल 1936 में अंग्रेजों ने बनवाया था। माइकल साहब सिविल सर्जन थे, उनके साथ सत्यनारायण, बुच्ची भाई, थॉमस, जयंतीलाल मिश्रा और भी कई मेडिकल स्टाफ़ थे। जारी उनके समर्पण की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, -डॉक्टर इलाज के लिए घर आते थे और कोई फ़ीस नहीं लेते थे। पैसे से ज़्यादा मानवता मायने रखती थी।

ज़िंदगी पुराने स्कूलों के इर्द-गिर्द घूमती थी ग्रिक्सन हाई स्कूल बस्तर हाई स्कूल बन गया, जो अब जगतू महारा है। सदर स्कूल भी पुराना है। कोई कॉलेज नहीं था सिर्फ़ रायपुर में छत्तीसगढ़ कॉलेज था। शहर में तालाब बिखरे पड़े थे गंगा मुंडा, नयामुंडा, दलपत सागर, यहाँ तक कि बिजली घर के नीचे भी एक तालाब था।

आज़ादी से पहले बस्तर में बिजली थी। आबादी सिर्फ़ दस हज़ार थी। ज़मींदार आकर यहां अपने बनाए क्वाटर्स में रहते थे ।

बस्तर को ठंडा रखने वाले जंगल अब लगभग खत्म हो चुके हैं। ष्पेड़ों के कटने से गर्मी आई। आज़ादी के बाद भी कई सालों तक इंद्रावती नदी अच्छी तरह बहती रही। अंग्रेज़ों के हवाई जहाज़ आते थे।

अब, जारी कहते हैं, पैसे ने लोगों को बदल दिया है। पहले डॉक्टर पैसे नहीं मांगते थे। अब, मानवता पहले जैसी नहीं रही।”

लुप्त होते युग की गूँज
जारी की यादें बस्तर की खोई हुई सादगी की एक जीवंत तस्वीर पेश करती हैंकृएक ऐसी जगह जहाँ प्रशासक घोड़ों पर सवार होते थे, डॉक्टर घर-घर जाकर इलाज करते थे, और जंगल तपती धूप से ज़मीन की रक्षा करते थे।उनकी कहानी एक वृत्तांत और एक चेतावनी दोनों है। वे निष्कर्ष निकालते हैं, वहाँ ईमानदारी, समर्पण और ज़िम्मेदारी का भाव था। यही बस्तर को खास बनाता है।

प्रगति की ओर दौड़ते हुए, बस्तर को अपने अतीत के सबक नहीं भूलना चाहिए। जगदीश जारी जैसी आवाज़ों के ज़रिए, वे दिन आज भी ज़िंदा हैं।

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