रथ खींचने की सज़ा

जगदलपुर , 07 अक्टूबर .   विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व किलेपाल परगना के 34 गाँवों में उत्साह और सामाजिक समरसता के ऊर्जा का संचार करता है। बस्तर दशहरा में रथ खींचने का अधिकार भी रियासतकाल से चली आ रही है। आश्विन शुक्लपक्ष द्वितीया से सप्तमी तक चलने वाले फूल रथ की परिक्रमा के लिए भतरा जनजाति को अधिकार दिया गया था तथा विजय रथ जो चार चक्कों का होता है, आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी, भीतर रैनी तथा आश्विन शुक्ल पक्ष के एकादश तिथि को बाहर रैनी के दिन खींचा जाता है, उस रथ को खींचने का अधिकार कोडेनार किलेपाल परगना के लोगों दिया गया है। कालान्तर में इस व्यवस्था में कुछ परिवर्तन आया और फूल रथ खींचने की व्यवस्था किसी एक जाति को न देकर पंगना के ग्रामीणों को दिया गया।
बस्तर के जाने माने साहित्यकार रुद्रनारायण पाणिग्राही ने बताया कि रथ  खींचने के लिए जाति का कोई बंधन नहीं है। माडिया, मुरिया, धाकड़, कलार, हल्बा या भतरा, प्रत्येक गाँव से परिवार के एक सदस्य को रथ खींचने के लिए जगदलपुर पहुँचना होता है। प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को अनिवार्य रूप से रथ खींचने का यह नियम रियासतकाल से चला आ रहा है। इस नियम अथवा आदेश को गाँव का मांझी, मुखिया या पटेल तामील करता है। सौंपे गए इस कार्य के प्रति लापरवाही या नहीं जाने पर मांझी, मुखिया या पटेल के द्वारा उस परिवार को आर्थिक दण्ड दिया जाता है। बस्तर के जनजातीय समाज में सामाजिक न्याय प्रणाली व्यवस्था के अनुसार आर्थिक दण्ड परिवार के आर्थिक स्थिति के अनुसार तय होता है।
उन्होंने बताया कि सामाजिक बहिष्कार जैसे दण्ड, जाति से पृथक पश्चात जाति में गुनः सम्मलित किए जाने के दण्ड, आर्थिक दण्ड जैसे कई दण्ड एक सामाजिक न्याय प्रणाली के अन्तर्गत आता है। यहाँ जुर्माना या आर्थिक दण्ड उनके आर्थिक स्थिति के अनुसार दिया जाता है। एक बार गल्ती करे या बार-बार गल्ती करे, जानकर भी उन्हें सामाजिक न्याय के अनुसार ही दण्ड दिया जाता है। प्रत्येक वर्ष जाति से बाहर और सम्मलित किए जाने पर जो आर्थिक दण्ड दिया जाता है, उसके पुनरावृति पर कई गुना अधिक आर्थिक दण्ड दिया जाना चाहिए, किन्तु दण्ड के पीछे मूल भावना यह है कि सदियों की यह समृद्ध परम्परा और रस्मों रिवाज़ टूटने ना पाए और युवा वर्ग आधुनिक सभ्यता के फेर में आकर इससे विमुख ना हो जायें। यही कारण है कि जनजातीय  परिवारों की अपनी न्याय प्रणाली की अपनी एक विशेषता है।  रियासत कालीन व्यवस्था तथा वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था में काफी अंतर आया  है। विजय रथ जो आठ चक्कों वाला विशाल रथ होता है, उस रथ को खींचने का अधिकार किलेपाल परगना के ग्रामीणों का एकाधिकार है, यह उनका मानना है। अमी-कभी खींचने के दौरान, बाहरी व्यक्तियों के द्वारा रथ खींचने का प्रयास किया जाता है, तो व इसका बुरा मान जाते हैं। उनका मानना है कि बाहरी आदमी के द्वारा खींचने का प्रयास करने पर विघ्न उत्पन्न होता है तथा उनकी आस्था को ठेस पहुँचता है।
एक मान्यता के अनुसार किलेपाल परगना के ग्रामीणों को अन्य परगनों के ग्रामीणों की तुलना में अधिक शक्तिशाली माना गया है। कहा जाता है कि फूल रथ को खींचने में विजय रथ की तुलना में अधिक शक्ति की आवश्यकता नहीं होती। जबकि विजय रथ को खींचने में अधिक शक्ति की आवश्यकता होती है। ग्रामीणों का मानना है कि फूल में माई दन्तेश्वरी तथा उनका पुजारी ही विराजमान होता है, किन्तु विजय रथ पर कई अदृश्य शक्तियाँ अर्थात् अंचल तथा अंचल के बाहर से आए देवी-देवता विराजित होने के कारण आत चक्कों का विशाल रथ और भी भारी हो जाता है। इस भारी रथ को केवल किलेपाल परग के ग्रामीणों के द्वारा आसानी से खींचा जाता है। कभी-कभी दन्तेश्वरी मंदिर से कुम्हड़ाक तथा वहाँ से वापसी में कई गुना अधिक समय लग जाता है।
श्री पाणिग्राही ने बताया कि 1947 के पूर्व और पश्चात् के कुछ वर्षों तक ग्रामीणों का जोश देखते ही बनज था किन्तु पिछले कुछ वर्षों से रथ खींचने के प्रति लोगों में रूचि कम होती जा रही है। की अपेक्षा ग्रामीणों के आने-जाने की व्यवस्था में सुधार करते हुए, ग्रामीणों को उनके परगनों  या गावों से जगदलपुर आने के लिए वाहन, रुकने का स्थान, भोजन आदि सुविधाए दी जाने लगी है

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