सैकड़ों साल पुरानी यह परंपरा आधुनिकता और बाज़ारवाद की लहरों से जूझती दिख रही है
बस्तर/ दशहरा 2025 का समापन पारंपरिक मावली माता की विदाई विधान के साथ हुआ,लेकिन इस बार यह उत्सव पहले से अधिक विवादों और आधुनिकता की छाया में डूबा नजर आया। सदियों पुराना यह पर्व, अपनी विशिष्ट परंपराओं और जनभागीदारी के लिए जाना जाता है, इस वर्ष बदलावों और विवादों के कारण चर्चा में रहा।इस वर्ष बस्तर दशहरा की शुरुआत ही विवादों से हुई। सबसे बड़ा विवाद उस लकड़ी को लेकर उठा जिससे रथ तैयार किया जाता है, और फिर राजा के रथारोहण को लेकर भी असहमति सामने आई। बस्तर के राजा कमलचंद भंजदेव ने इस पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि उन्हें दशहरा के दौरान रथ में बैठने की अनुमति दी जानी चाहिए थी, क्योंकि यह न केवल एक परंपरा है बल्कि उनकी सांस्कृतिक भूमिका का प्रतीक भी है। जहां पहले बस्तर दशहरा पूरी तरह लोककला, हस्तशिल्प और स्थानीय संस्कृति के रंग से सराबोर होता था, वहीं इस बार इसमें मशीनों और कृत्रिम सामग्रियों का असर साफ दिखाई दिया। सजावट में आधुनिक तकनीक और मशीनों का प्रयोग किया गया।
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उत्सव के दौरान एक और चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिली प्राकृतिक फूलों की जगह बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के फूलों का उपयोग किया गया। फूल रथ इस वर्ष भी कृत्रिम फूलों से सजा हुआ मिला जिससे जो फूलों की प्राकृतिक खुष्बू आती थी अब दखने को नहीं मिली। प्रशासन ने पिछले वर्ष इस विषय पर रोक लगाने की बात कही थी, लेकिन इस बार भी वही गलती दोहराई गई। इससे न केवल सौंदर्य कम हुआ बल्कि पर्यावरणीय चेतना पर भी सवाल उठे। हर वर्ष दशहरे के दौरान लगने वाला बस्तर का पारंपरिक बाजार स्थानीय हस्तनिर्मित वस्तुओं से भरा रहता था, मगर इस बार वहां चाइना निर्मित उत्पादों का बोलबाला दिखाई दिया। खिलौनों से लेकर सजावटी सामान तक हर जगह विदेशी वस्तुएं छाई रहीं। स्थानीय कारीगरों और कलाकारों की उपस्थिति और भागीदारी उम्मीद से कहीं कम रही ।
मुरिया दरबार जो हर दशहरे में लगता है -उसमें विभिन्न समस्याओं और उसके निराकरण पर विचार विमर्श होता है मगर इस बार 2025 के दशहरे में माझी मंगलू की रखी बात को तवज्जो नहीं मिली और न ही किसी तरह की कोई प्रतिक्रया सामने आई। बाद में गृहमंत्री अमित शाह और विधायक ने कहा -देखते हैं। मगलू ने कहा था कि बोधघाट परियोजना के कारण 42 गांव डूबान क्षेत्र में आ रहें है इन गांवों के विस्थापन की क्या व्यवस्था? है ? जवाब तत्काल न मिल कर बाद मेें मिला वह भी -देखते हैं के आश्वासन पर ।
सैकड़ों साल पुरानी यह परंपरा, जो बस्तर की पहचान है, आज आधुनिकता और बाज़ारवाद की लहरों से जूझती दिख रही है। मशीनों, प्लास्टिक और विदेशी उत्पादों की बढ़ती मौजूदगी ने इस सांस्कृतिक पर्व की आत्मा को कमजोर किया है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बस्तर दशहरा 2025 ने यह सवाल खड़ा कर दिया है -क्या हम अपनी परंपराओं को सहेज पाएंगे या आधुनिकता की आंधी में उन्हें खो देंगे? इस वर्ष के दशहरे ने उत्सव के साथ-साथ आत्ममंथन का अवसर भी दिया है, ताकि भविष्य में यह पर्व अपनी मौलिकता और लोक-संस्कृति की गरिमा के साथ फिर चमक सके।