मध्याह्न भोजन की कड़वी सच्चाई !

क्या सांकेतिक सज़ा बस्तर के गहराते संकट को दूर कर पाएगी?

जगदलपुर / बस्तर सरकारी स्कूलों में मध्याह्न भोजन योजना की भयावह सच्चाई मंगलवार को उस समय उजागर हुई जब शिक्षा विभाग के संयुक्त निदेशक राकेश पांडे ने उलनार माध्यमिक विद्यालय का औचक निरीक्षण किया। छात्रों के लिए जो एक नियमित दोपहर का भोजन था, वह जल्द ही उस व्यवस्था पर कलंक बन गया जिसका काम उन्हें पोषण देना है।
जिला शिक्षा अधिकारी बलिराम बघेल के साथ राकेश पांडे और विद्यालय के बच्चों ने मिलकर भोजन किया। उन्होंने जो पाया वह बेहद निंदनीय था सब्ज़ी में टमाटर नहीं थे, आलू की सब्जि और चावल की गुणवत्ता इतनी खराब थी कि उन्होंने सवाल उठाया कि बढ़ते बच्चों की तो बात ही छोड़िए, कोई भी इसे कैसे खा सकता है। मामला और भी बदतर तब हो गया जब भोजन अस्वच्छ परिस्थितियों में परोसा गया, जिससे बच्चों की सुरक्षा और स्वास्थ्य को लेकर गंभीर चिंताएँ पैदा हो गईं।
आक्रोशित होकर पांडे ने उपस्थित खंड शिक्षा अधिकारी, संकुल समन्वयक (बीआरसी) और स्कूल के प्रधानाचार्य का एक दिन का वेतन रोकने का आदेश दिया। हालाँकि इस तरह की त्वरित कार्रवाई प्रशासनिक सख्ती का दिखावा तो करती है,लेकिन यह बस्तर के स्कूलों में एक पुरानी समस्या बन चुकी है। और क्षेत्र के कुछ सबसे कमज़ोर बच्चों को नियमित रूप से घटिया, यहाँ तक कि ख़तरनाक भोजन परोसे जाने को दूर करने में यह कोई कारगर कदम नहीं है।
यह स्थिति कोई अकेली नहीं है। कुछ ही दिन पहले, जगदलपुर के नवोदय विद्यालय में दूषित भोजन खाने से छात्र बीमार पड़ गए थे। पोटा केबिन स्कूलों में भी हाल ही में घटिया मध्याह्न भोजन की शिकायतें सामने आई थीं। हर मामले में, सांकेतिक दंड के ज़रिए ज़िम्मेदारी को स्वीकार कर लिया जाता है, लेकिन कोई दीर्घकालिक सुधार नहीं होता।

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मध्याह्न भोजन योजना को पोषण और शैक्षिक परिणामों में सुधार के लिए एक आधारशिला नीति के रूप में देखा गया था। इसके बजाय, बस्तर जैसे इलाकों में, यह उपेक्षा, पक्षपात और व्यवस्थागत उदासीनता का पर्याय बन गई है। एक दिन के वेतन में कटौती एक संदेश तो दे सकती है, लेकिन यह टूटी हुई आपूर्ति श्रृंखला, ढीली निगरानी, ​​या जवाबदेही की कमी को दूर नहीं करेगी, जिसने ऐसी स्थितियों को वर्षों तक जारी रहने दिया है।
अगर उच्चतम स्तर के अधिकारी बच्चों को दिए जा रहे भोजन से सचमुच नाराज़ हैं, तो इस नाराज़गी को ढाँचागत बदलावों में बदलना होगा । पारदर्शी ऑडिट, सख्त गुणवत्ता जाँच और निरंतर निगरानी न कि सिर्फ़ दिखावटी सज़ाएँ जो अगले घोटाले के सामने आने तक चुपचाप दब जाती हैं।

बस्तर के बच्चे सिर्फ़ प्रतीकात्मक कार्रवाई से ज़्यादा के हक़दार हैं। उन्हें एक ऐसी व्यवस्था चाहिए जो उनके सम्मान, स्वास्थ्य और भविष्य को महत्व दे। जब तक जवाबदेही दिन भर की सज़ा से आगे नहीं बढ़ेगी, मध्याह्न भोजन योजना एक वादा-खिलाफ़ी ही बनी रहेगी। सुशासन के दौर में ऐसी खबर विचलित कर देती है।

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