जगदलपुर, 29 सितम्बर। 75 दिनों तक चलने वाला ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व का एक अनोखा रस्म निसाजात्रा कल आधी रात को संपन्न होगा।
प्राचीन काल में राजा महाराजा बुरी प्रेत आत्माओं से राज्य की रक्षा के लिए अद्भुत रस्म को निभाते थे. अब निशा जात्रा रस्म की अदायगी मात्र 11 बकरों की बलि देकर की की जाती है. बकरों की बलि जगदलपुर के गुड़ी मंदिर में दी जाती है.
बस्तर राजपरिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने बताया कि दशहरा में काले जादू की रस्म 1301 से चली आ रही है. काले जादू की रस्म को राजा महाराजा बुरी प्रेत आत्माओं से राज्य की रक्षा के लिए निभाते थे. रस्म में बलि चढ़ाकर देवी को प्रसन्न किया जाता है. कमलचंद भंजदेव ने बताया कि निशा जात्रा की बस्तर के इतिहास का अभिन्न हिस्सा है. समय के साथ-साथ रस्म में जरूर बदलाव आए हैं.
बस्तर के साहित्यकार रूद्रनारायण पाणिग्राही ने बताया कि यह रस्म आश्विन शुक्ल द्वितीया से सप्तमी तक पुष्प सज्जा प्रथान अर्थात् फूलरथ की परिक्रमा के पश्चात अगला दिन अष्टमी, संकल्प पूजा-पाठ के दिन होते हैं। इन दिनों सरस्वती देवी, चंडी, हनुमान, बगलामुखी, विष्णु एवं अन्य देवी-देवताओं की पूजा होती है। रियासतकाल में बस्तर के महाराजा ब्रह्म मूहुर्त से लेकर दस बजे तक प्रतिदिन नौ दिनों तक ब्राह्मणों के समीप बैठकर पाठ व जाप करते थे। अष्टमी की रात्रि को निशा जात्रा पूजा एवं बलि देने की रात्रि होती है। निशा जात्रा के लिए पालकी में महाराजा की सवारी, सिरहा, पुजारी, अनुचरों आदि का समूह राजमहल से निशा-जात्रा पूजा स्थल तक आता था तो आगे-आगे बाजा-मोहरी, देव पाड़ की गंभीर ध्वनि मीलों दूर तक रहस्यमय दहशत फैला देती थी। इस रात बलि दी जाने वाली पशुओं की संख्या का कोई हिसाब नहीं होता था। बलि देने वाला व्यक्ति भी थक कर चूर हो जाता था। चारों ओर पशुओं के खून से लथपथ स्थल, खून ही खून। ऐसे पूजा स्थल तक कमजोर हृदय वाला व्यक्ति नहीं आता था। इस पूजा स्थल तक महिलाओं और विशेष कर बच्चों का जाना निषेध होता था। अष्टमी की आधी रात दन्तेश्वरी मंदिर में पूजा-अनुष्ठान के बाद मांई जी की डोली को लेकर बाजे-गाजे के साथ पुजारी, राजगुरू व अन्य भक्त निशा-जात्रा मंदिर पहुंचते हैं। यह परम्परा आज भी निर्वाध रूप से कायम है।
निशाजात्रा रस्म कल
